Sunday, August 2, 2009

Date of Swadhyaya: 08/02/2009
Attendees:
Summary Prepared by:
Chapter No: 2
Sutra No: 40 to 44
Recorded lecture: http://library.jain.org/1.Pravachan/shrish/TatvarthSutraClass/
Summary:


सूत्र 40 = अप्रतिघाती
अप्रतिघाती = यहाँ पर अप्रतिघाती का मतलब किसीके रोकने से न रुके यह लेना है.
तेजस और कार्मन शरीर अप्रतिघाती है, परन्तु वैक्रियक और आहारक शरीर अप्रतिघाती नहीं है.
वैक्रियक शरीर की limitation = वे त्रसनादी में १६ स्वर्ग से ऊपर और ३ नरक से नीचे नहीं जा सकते.
आहारक शरीर की limitation = वे २.५ द्वीप से आगे नहीं जा सकते.

सूत्र 41 = अनादिसम्बंधे च
तेजस और कार्मन शरीर को "बीज-वृक्ष न्याय" नियम से अनादी कहा है. यहाँ "च" शब्द opposite लेना है, इसलिए एक अपेक्षा से अनादी से और दूसरी अपेक्षा से सादी है, परन्तु वैसा सम्बन्ध वैक्रियक, औदरिक और आहारक में नहीं होता, हर जन्म में जिव दूसरा शरीर धारण करता है, इसलिए वह संभंध अनित्य है. तेजस और कार्मन शरीर जिव के साथ सदा ही रहते है इसलिए अनादी है और पिछले बंधे कर्म की निर्जरा होती है और नए कर्म का बांध प्रतिसमय होता है इसलिए वह सादि है .

सूत्र 42 = सर्वश्य
तेजस और कार्मन शरीर सभी जिव को होता है , अरिहंत भगवान् को भी पाया जाता है, परन्तु सिद्ध भगवान के एक भी शरीर नहीं होता.

सूत्र 43 = तदादीनी भाज्यानी युग्पदेकस्मिन्नाचातुर्भ्य:
जीव के २ से ४ तक के शरीर एकसाथ एकसमय पर होते है,
२ शरीर = तेजस और कार्मन = विग्रह गति में,
३ शरीर = तेजस,कार्मन और आहारक = लगभग सभी जीव में होता है,
३ शरीर = तेजस,कार्मन और वैक्रियक= देवो और तिर्यंच में होता है,
४ शरीर = तेजस,कार्मन,औदरिक, आहारक = रुद्धिधारी मुनियों को होता है.
In the book, sutra no. 43, 3rd last line Shirishji will confirm.( छठे गुनस्थानवर्ती....... औदरिक, वैक्रियक, तैजस, कार्मन ये चार शरीर होते है)

सूत्र 44 = निरुपभोगमन्त्यम
उपभोग = इन्द्रिय आदि के द्वारा शब्द वगैरह के ग्रहण करने को उपभोग कहते है.
योग = मन, वचन,काया की क्रिया से आत्मा के प्रदेशो में कम्पन.
कार्मन शरीर उपभोग रहित है, इसका आशय यह है, विग्रह गति में कार्मन शरीर से योग होता है, परन्तु कार्मन शरीर विग्रह गति में शब्द आदि को ग्रहण नही करता है, क्योकि तब भावेद्रिय ही होती है, द्रव्येंद्रिया नहीं होती, सो कार्मन शरीर को निरुपभोग कहा है. तेजस शरीर योग में निम्मित नहीं है इसलिए वह तो वैसे ही निरुपभोग है. बाकि के तीन शरीर सोपभोग ही है.

Friday, July 31, 2009

Date of Swadhyaya:
Attendees: Vishal Riddhi, Ruchi, Kunal, Anupama, Pradeep
Summary Prepared by:
Chapter No:Chapter 2 page 47
Sutra No:सूत्र no 32, 33, 34 , 35,37
Recorded lecture: http://library.jain.org/1.Pravachan/shrish/TatvarthSutraClass/
Summary: <
जीव का जन्म ३ प्रकार का होता है
समूर्शन जन्म - सर्व जगत में बिना माता पिता के सम्बन्ध के वातावरण से अपने शरीर के लायक सामग्री एकत्र के उत्पन्न होने वाले जीवों का समूर्शन जन्म कहलाता है १ इंद्रिय से लेकर असंगी ५ इंद्रिय तक के जीवो को होता है त्रियंच मैं होता है
गर्भ जन्म - माता के उदर में रज-वीर्य के संयोग से जो शरीर के रचना होती है वह गर्भ जन्म कहलाता है मनुष्यों और संगी 5 इंद्रिय जीवो का होता है
उपपाद जन्म - किसे जगह विशेष में अन्तर मूर्त में पूर्ण शरीर बना लेते है इस प्रकार का जन्म उपपाद जन्म कहलाता है नरकी और देवो में होता है


ये जीव का जन्म कोन सी जगह पर होता है जीव के जन्म होने के स्थान को योनी कहते है
सचित - चेतना युक्त स्थान उदहारण - गर्भ जन्म, समूर्शन जन्म
अचित - अचेतना युक्त स्थान उदहारण - देव, नरकी , समूर्शन जन्म
सचिताअचित - चेतना और अचेतना युक्त स्थान उदहारण - समूर्शन जन्म

शीत - ठंडी स्थान मैं उत्पन्न होने वाले जीव उदहारण- गर्भ जन्म, समूर्शन जन्म
उश्र्ण- गरम स्थान मैं उत्पन्न होने वाले जीव उदहारण- गर्भ जन्म, समूर्शन जन्म
शीतोउश्र्ण- दोनों के मिश्र स्थान मैं उत्पन्न होने वाले जीव उदहारण- गर्भ जन्म, समूर्शन जन्म

संवृत- उत्पन्न होने वाले जीव का स्थान ढका हुआ हो - उदहारण- मनुष्य, मुर्गी
विवृत - उत्पन्न होने वाले जीव का स्थान खुला हुआ हो - उदहारण- शेर , गाय , हिरन
संवृतविवृत - उत्पन्न होने वाले जीव का स्थान ढका हुआ हो - उदहारण- समूर्शन जन्म

गर्भ जन्म के ३ भेद है
जरायुज- जन्म के समय जीव के शरीर पर रुधिर और मॉस की झल्ली होती है - उदहारण- मनुष्य, बेल
जन्द्ज- जन्म के समय जीव का शरीर एक अंडे में बंद होता है उदहारण- कबुतुर , मुर्गी
पोतज - जन्म होने के कुछ क्षण बाद ही जीव चलने फिरने लगता है उदहारण- शेर , गाय , हिरन

शरीर ५ प्रकार का होता है
औदोयिक - स्थूल या कुछ अपेक्षा से दिखाई देने वाले शरीर को औदोयिक शरीर कहते है जेसे मानुष के शरीर, त्रियंच का शरीर होता है
वक्र्यिक - जो एक अनेक , हल्का भारी , सूक्ष्म स्थूल और किसी प्रकार का बनाया जा सके उसे वक्र्यिक शरीर कहते है जेसे मुनि, देव, चक्रवर्ती को प्राप्त हो सकता है
आहारक - विक्रिया रिधि से रचित शरीर , सफ़ेद , जो एक हाथ बराबर होता है जेसे मुनि, देव, चक्रवर्ती को प्राप्त हो सकता है
तेजस - औदोयिक शरीर को काँटी देने वाले शरीर को तेजस शरीर कहते है जो सभी जीवो के होता है
कर्मान - कर्मों से समूह से बने शरीर को कर्मान शरीर कहते है जो सभी जीवो के होता है केवल सिद्ध भगवान् को नहीं होता है
- विग्रह गति में कर्मान और तेजस शरीर होते है

शरीर के possible combination:
औदोयिक कर्मान तेजस - मनुष्य, त्रियंच को होता है
औदोयिककर्मान तेजस - देव , नरकी को होता है
वक्र्यिक आहारक कर्मान तेजस - ६ गुण स्थान या उससे उचे गुण स्थान वाले मुनिराज , देव को ही होता है
सिद्ध भगवान् के कोई शरीर नहीं होता
औदोयिक से आगे के शरीर सूक्ष्म होता जाता है जेसे
औदोयिक से ---> असंख्यात गुने सूक्ष्म वक्र्यिक शरीर ----> असंख्यात गुने सूक्ष्म औदोयिक ---> अनंत गुने सूक्ष्म तेजस ----> अनंत गुने सूक्ष्म कर्मान शरीर होता है
परमाणु की अपेक्षा से यह क्रम उल्टा है
औदोयिक से ---> असंख्यात गुने जयादा परमाणु वक्र्यिक शरीर ----> असंख्यात गुने जयादा परमाणु औदोयिक ---> अनंत गुने जयादा परमाणु तेजस ----> अनंत गुने जयादा परमाणु कर्मान शरीर होता है
कर्मान शरीर मैं सबसे जयादा परमाणु है
जेसे - सामान परमाणु का रुई का पिंड बहुत जायदा होगा और सामान परमाणु का लोहे का पिंड बहुत छोटा होगा >

Saturday, June 20, 2009

अध्याय २ सूत्र १२ से १४

Date of Swadhyaya: ०६/२९/०९
Attendees:
Summary Prepared by: अशोक सेठी
Chapter No: 2
Sutra No: १२ से १४
Recorded lecture: http://library.jain.org/1.Pravachan/shrish/TatvarthSutraClass/
Summary:

प्रश्न उत्तर

लक्षण : जिससे किसी वास्तु की ठीक पहचान हो सके वह लक्षण है .
उपयोग : ज्ञान और दर्शन के गुणौ के परिणमन को उपयोग कहते हैं .
Sutra 12
संसारी जीव त्रस और स्थावर होते हैं . त्रस नाम कर्म वाले २ से ५ इन्द्रिय वाले iइंद्रिय स्थावर नाम कर्म वाले जीव १ इन्द्रिय वाले होते हैं .
Sutra 13
१ इन्द्रिय वाले jeev 5 prakaar ke hote hain
Prithvi kayak, Vaayu Kayak, jal kayak, agni kayak aur vanaaspati kayak.
In sabki kaya hi aisee hoti hai.
Prathivi Jeev - masoor ki daal ke saman
Agni Jeev Sui ke saman
Jal Jeev paani ki boond ke saman
Vayu Jeev Zande ke saman
Vanaspati jeev Vibhin aakar ka ho sakata hai ( depending on the vanaspati)
Example of Prithvi
Prithvi - Savayam se bani achetan jameen
Prithvi Kaya - Prithvi kaa shareer - jeev ke nikalne ke baad
Prithvi kayik - Prithvi main rahane vaalaa jeev
Prithvi Jeev - Vigraha gati kaa jeev jo ki prithvikayik jeev banane vala hai

Sutra 14
Tras jeev 2 se 5 indriya wale hote hain. inme ek ek indriya badhti hai
2 indriya ke sparsh aur ras
3 indirya ke sparshm ras aur gandh
4 indirya ke sparshm ras gandh aur varna
5 indriya ke saari indriya hoti hai.

Praan : Yaha jeev ka vyahavarik laxan hai. Jiske dwara jeev jivatva roop vyavahaar ke yogya hai usko hi Praan kahate hai.
1 indriya jeev main 4 praan hote hai aur 5 indriya sangi jeev main 10 praan hote hain.
2 indriya main 6, 3 indriya main 7, 4 indriya main 8 aur 5 indriya asngi main 9 praan hote hain.

Ch 2 Sutra 8 - 12

Date of Swadhyaya: 13th June, 2009
Attendees:
Summary Prepared by: Avani
Chapter No: 2
Sutra No: 8 - 12
Recorded lecture: http://library.jain.org/1.Pravachan/shrish/TatvarthSutraClass/
Summary:

5 Bhav

Audayik

Karm ke uday se jo bhaav utpaan hota hai usa audayik bhav kahte hai. (Properties because of Impurity) eg: krodha bhav - caused by uday of krodh kashay.

Kshayik
Karm ke kshay se jo bhaav utpaan hota hai usa Kshayik bhav kahte hai. (Pure without Impurity)
eg: kevalgyan

Aupshamik
Karm ke upsham se jo bhaav utpaan hota hai use Aupshamik bhav kahte hai. (Not 100% pure, Shows purity, Dormant Impurity)
eg: aupshamik samyaktav - caused by upsham of darshan mohniya karm.

Kshayopshamik
Karm ke kshyaopsham se jo bhaav utpaan hota hai use Kshayopshamik bhav kahte hai. (Part of purity because of karma) eg: mati gyan - caused by kshayopsham of mati gyanavarniya karma.

Parinamik
jeev ke aise bhaav jo ki karm ki apeksha nahi rakhe hai aur trikalvarti avastha mein swabhav se hi paya jaye, chahe wah avastha shuddh ho ya ashuddh ho, use parinamik bhav kahte hai.
eg: jeev ka janan bhav - because regardless of whether a jeev is in nigod or is a siddha, janan bhav will always be there. Here, we drew a distinction between janan bhav and gyan itself, since gyan may be more or less depending on the corresponding gyanavarniya karma's uday, while janan bhav is something that stays constant across all paryayas. (Properties Independent of Purity/ Impurity)


द्वीभंगी - दो भंग त्रिभंगी - तिन भंग

यह भाव मेसे कोई दो भाव / तिन भाव कहा पाए जाते है.

द्वीभंगी :

औपशमिक + क्षायिक = 11th गुनस्थान
औपशमिक चरित्र + क्षायिक सम्यकदर्शन

औपशमिक + क्षायोपशमिक = 11th गुनस्थान
औपशमिक चरित्र + क्षायोपशमिक ज्ञान

औपशमिक + औदेयिक = 4th गुनस्थान
औपशमिक सम्यक्त्व + औदेयिक (कर्मो का उदय - ज्ञानावर्निय)

औपशमिक + परिणामिक = 4th गुनस्थान
औपशमिक सम्यक्त्व + जिव का स्वाभाव जो हमेसा साथ रहेता है

यह सब one of the examples है...इसके सिवाय भी कई जगह यह भाव पाए जाते है.

लक्षण
- किसी वस्तु का लक्षण वो है जो उस वस्तु को बाकि वस्तु से अलग दिखाए. लक्षण पूरी चिज को समजता नहीं है वो वस्तु की विशेषता है जो दूसरी चीज से अलग है.

किसी चीज का लक्षन दोष रहित होना चाहिए...

यह दोष तिन प्रकार के है..कोई भी लक्षण यह तिन दोष से रहित होना चाहिए

अतिव्याप्ति - यह लक्षण एक से ज्यादा चीज में पाया जाता है
e.g. जो Apple जय सा है वो Orange है ( इस में दोष होगा - Apple जैसा पेर, Orange etc भी है )
अव्याप्ति - यह लक्षण पूरी/ सभी चीज को नहीं बताकर कुछ भाग को ही बताते है.
e.g. जो Apple जैसा पिला colour का है वो Orange है (दोष लगेगा क्यूंकि जो Orange Colour का है वो भी Orange है)
असम्भव पना - यह लक्षण उस चीज में पाया ही नहीं जाता
e.g. Orange Black colour का है

जिव का लक्षण उपयोग है इसमें कोई दोष नहि है क्यूंकि उपयोग सिर्फ जिव में पाया जाता है

उपयोग - गुण का परिणमन उपयोग है. जिव में ज्ञान, दर्शन गुण है, उसका परिणमन ज्ञाता, द्रष्टा पना के परिणमन को उपयोग कहते है

उपयोग कितने प्रकार के है?
१. ज्ञानोपयोग - ५ ज्ञान, कुमति, कुअवधि, कुश्रुत
२. दर्शनोपयोग - चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन, केवल दर्शन

दर्शन और ज्ञान में साकार और अनाकार ऐसे दो प्रकार के भेद है दर्शन निराकार है उसके पश्चात पदार्थ के आकर वगैरेह को जानना ज्ञान होता है

छ्द्मस्थ को दर्शन के पश्चात ज्ञान होता है.. छ्द्मस्थ क्रम से पदार्थ को जानता है, परन्तु केवली भगवान दोनों के एक साथ जानते है

जिव के कितने भेद है?
१. संसारी
२. मुक्त

यह व्यव्हार से भेद किये गए है...निश्चय से सब जिव जिव है

संसार - चक्कर लगाना , जन्म मरण, रात - दिवस. यह सब चक्कर है.

पॉँच प्रकार के परिवर्तन होते है.

A. द्रव्य परिवर्तन:
१. नोकर्म परिवर्तन - जिस प्रकार का शारीर अभी है वैसे यही अवस्था अनेक जन्म मरण के बाद आ जाये, यही परमाणु फिर मिले
२.कर्म परिवर्तन - यही कर्म वर्गना फिरसे अनेक जन्म मरण के बाद वापस मिले
B. क्षेत्र परिवर्तन - लोकाकाश के सब प्रदेशो में अमुक क्रम से उत्पन्न होने और मरने रूप परिभ्रमण C.काल परिवर्तन - क्रमवार उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कल के सब समयों में जन्म लेने और मरने रूप परिभ्रमण
D. भव परिवर्तन - नाराकादी गतियों में बार - बार उत्पन्न होकर जघन्य से उत्क्रुस्थ पर्यंत सब आयु को भोगने रूप परिभ्रमण.(देव गति में ३१ सागर तक की ही आयु भोगनी चाहिए.)
E.भाव परिवर्तन - सब योग स्थानों और कषाय स्थानों के द्वारा क्रम से सभी कर्मो की जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट, स्थिति को भोगने रूप परिभ्रमण

इस परिवर्तन से जो जिव छुट जाते है वो मुक्त जिव है

Q. संसारी जिव कितने प्रकार के होते है?
१. मन सहित जिव - संगी जिव
२. मन रहित जिव - असंगी जिव

मन अच्छे - बुरे का विचार कर सकते है

Q. संसारी जिव के भेद दूसरी अपेक्षा
१.त्रस- दो से पॉँच इन्द्रिय के जिव को त्रस जिव कहते है. त्रसनाम कर्म का उदय है
२. स्थावर - एक इन्द्रिय वाले जिव को स्थावर कहते है . स्थावर नाम कर्म का उदय है

व्यव्हार से जो हलन चलन कर सकते है उसको त्रस, जो स्थिर है उसको स्थावर कहते है.

NOTE:

जिव के लक्षण में दोष घटाना;

  • जो वितरागि ते जिव - अव्याप्ति दोष (रागी जिव इसमें नहीं आयेंगे )
  • जो अमुर्तिक वो जिव - अतिव्याप्ति दोष (अमुर्तिक तो आकाश द्रव्य भी है, तो वो भी जिव में आ जायेंगे)
  • जो रागी वो जिव - अव्याप्ति दोष (वीतरागी जिव इसमें नहीं आयेंगे )
  • जिसमे ज्ञान वो जिव - दोष रहित

Monday, June 8, 2009

Chapter 2, Sutra 1-7

Date of Swadhyaya: 06/06/09
Attendees:
Summary prepared by: Vishal Mehta  
Chapter No: 2
Sutra No: 1-7
Recorded lecture:
Summary:


पांच भाव

टेबल १: पांच भाव

 

ग्यान

दर्शन

श्रद्धा

चारित्र

द्रष्टांत

औपशमिक

-

-

औपशमिक सम्यकदर्शन

उपशांतमोह

अशुद्धि होते हुए शुद्ध सोना

शायिक

केवलग्यान

केवल्दर्शन

शायिक सम्यकदर्शन

शायिक चारित्र

शुद्ध सोना

क्शायोपशमिक

मतिग्यान, कुमतिग्यन, श्रुतग्यान, श्रुतग्यान, अवधिग्यान, विभंगग्यान, मनःपर्याय

चक्शुदर्शन, अचक्शुदर्शन, अवधिदर्शन

क्शायोपशमिक सम्यकदर्शन

सराग चरित्र और संयमासंयम

पीलापना

औदेयिक

अग्यान

अदर्शन

मिथ्यादर्शन

असंयम

सफ़ेदा

पारिनामिक

ग्यानपना

दर्शनत्व

श्रद्धानत्व

चारित्रत्व

स्वर्णीय

 

पांच भाव जीव के विशेष है

·         औपशमिक के २ भेद है

·         शायिक के ९ भेद है

·         क्शायोपशमिक के १८ भेद है

·         औदेयिक के २१ भेद है

·         पारिणामिक के ३ भेद है

पारिणामिक भाव बाकी के चार भाव जीव के साथ हंमेशा रहते है

कर्मरुप पुदगल मे कषाय नही है! जीव मे कषाय नही है! परंतु दोनो के मिलने पर कषाय पाइ जाती है!

 

टेबल २: गुनस्थान की अपेक्शा

 

ग्यान

दर्शन

श्रद्धा

चारित्र

कुल

औपशमिक

-

-

४ से ११

११

शायिक

१३, १४ और सिद्ध

१३, १४ और सिद्ध

४ से १४ और सिद्ध

१२ से १४ और सिद्ध

क्शायोपशमिक

१ से १२

१ से १२

५, ६, और ७अ

५ से १०

१३

औदेयिक

१ से १२

१ से १२

१ से ३

१ से ४

पारिनामिक

१ से १४ और सिद्ध

१ से १४ और सिद्ध

१ से १४ और सिद्ध

१ से १४ और सिद्ध

 

औपशमिक = २ (टेबल २ से)

शायिक = ४ (टेबल २ से) + ५ दानादि = ९

क्शायोपशमिक = १३ (टेबल २ से) + ५ दानादि = १८

औदेयिक = ४ (टेबल २ से) – १ (अदर्शन) + ४ (गति) + ४ (कषाय) + ३ (लिंग) + १ (असिद्धत्व) + ६ (लेश्या) = २१

पारिणामिक = १ (जीवत्व, टेबल २ से) + भवितव्यत्व + अभवितव्यत्व = ३

 

Date of Swadhyaya: 06/06/2009
Attendees:
Summary Prepared by: Vishal
Chapter No: 2
Sutra No: 1-5
Recorded lecture:
Summary:

पांच भाव
टेबल १: पांच भाव
ग्यान दर्शन श्रद्धा चारित्र द्रष्टांत
औपशमिक - - औपशमिक सम्यकदर्शन उपशांतमोह अशुद्धि होते हुए शुद्ध सोना
शायिक केवलग्यान केवल्दर्शन शायिक सम्यकदर्शन शायिक चारित्र शुद्ध सोना
क्शायोपशमिक मतिग्यान, कुमतिग्यन, श्रुतग्यान, श्रुतग्यान, अवधिग्यान, विभंगग्यान, मनःपर्याय चक्शुदर्शन, अचक्शुदर्शन, अवधिदर्शन क्शायोपशमिक सम्यकदर्शन सराग चरित्र और संयमासंयम पीलापना
औदेयिक अग्यान अदर्शन मिथ्यादर्शन असंयम सफ़ेदा
पारिनामिक ग्यानपना दर्शनत्व श्रद्धानत्व चारित्रत्व स्वर्णीय

पांच भाव जीव के विशेष है
• औपशमिक के २ भेद है
• शायिक के ९ भेद है
• क्शायोपशमिक के १८ भेद है
• औदेयिक के २१ भेद है
• पारिणामिक के ३ भेद है
पारिणामिक भाव जीव के साथ हंमेशा रहते है
कर्मरुप पुदगल मे कषाय नही है! जीव मे कषाय नही है! परंतु दोनो के मिलने पर कषाय पाइ जाती है!

टेबल २: गुनस्थान की अपेक्शा
ग्यान दर्शन श्रद्धा चारित्र कुल
औपशमिक - - ४ से ११ ११ २
शायिक १३, १४ और सिद्ध १३, १४ और सिद्ध ४ से १४ और सिद्ध १२ से १४ और सिद्ध ४
क्शायोपशमिक १ से १२ १ से १२ ५, ६, और ७अ ५ से १० १३
औदेयिक १ से १२ १ से १२ १ से ३ १ से ४ ४
पारिनामिक १ से १४ और सिद्ध १ से १४ और सिद्ध १ से १४ और सिद्ध १ से १४ और सिद्ध १

औपशमिक = २ (टेबल २ से)
शायिक = ४ (टेबल २ से) + ५ दानादि = ९
क्शायोपशमिक = १३ (टेबल २ से) + ५ दानादि = १८
औदेयिक = ४ (टेबल २ से) – १ (अदर्शन) + ४ (गति) + ४ (कषाय) + ३ (लिंग) + १ (असिद्धत्व) + ६ (लेश्या) = २१
पारिणामिक = १ (जीवत्व, टेबल २ से) + भवितव्यत्व + अभवितव्यत्व = ३

Saturday, May 16, 2009

Date of Swadhyaya: 05/16/09
Attendees: Quite a few
Summary Prepared by: Kunal
Chapter No: 2
Sutra No: 1-5
Recorded lecture:
Summary:

We started with 2nd chapter and covered first 5 sutras.
Isme jeev ke 5 bhav ke bare ma bataya gaya hai.


Audayik
Karm ke uday se jo bhaav utpaan hota hai usa audayik bhav kahte hai.

eg: krodha bhav - caused by uday of krodh kashay.

Kshayik
Karm ke kshay se jo bhaav utpaan hota hai usa audayik bhav kahte hai.
eg: kevalgyan

Aupshamik

Karm ke upsham se jo bhaav utpaan hota hai usa audayik bhav kahte hai.

eg: aupshamik samyaktav - caused by upsham of darshan mohniya karm.


Kshayopshamik

Karm ke kshyaopsham se jo bhaav utpaan hota hai usa audayik bhav kahte hai.

eg: mati gyan - caused by kshayopsham of mati gyanavarniya karma.
This bhav is also called "vedak bhav"/"mishrit bhav"/"shuddhashuddha bhav". It's called vedak, because yaha par karm ka vedan hota hai.

Parinamik

jeev ke aise bhaav jo ki karm ki apeksha nahi rakhe hai aur trikalvarti avastha mein swabhav se hi paya jaye, chahe wah avastha shuddh ho ya ashuddh ho, use parinamik bhav kahte hai.eg: jeev ka janan bhav - because regardless of whether a jeev is in nigod or is a siddha, janan bhav will always be there. Here, we drew a distinction between janan bhav and gyan itself, since gyan may be more or less depending on the corresponding gyanavarniya karma's uday, while janan bhav is something that stays constant across all paryayas.


In terms of shuddhta, the following order applies (in decreasing order of shuddhta).
kshayik > aupshamik > kshayopshamik > audayik bhav (we don't consider parinamik bhav here).

Each of these bhav have further subtypes, and they make up a total of 53 subtypes, as explained below.

aupshamik bhav - 2

aupshamik samyaktva
yah darshan mohniya karma ke upsham se pragat hota hai. This has 2 further subtypes

1) Prathamopsham samyaktva

  • mithvatva gunsthaan se 4th gunsthaan (avirat samyaktva) mein jab koi jeev aata hai, tab use jo "aupshamik samyaktva" hota hai use "Prathamopsham samyaktva" kahte hai

2) Dwitiopsham samyaktva

  • jab koi jeev upshaam shreni chadta hai (the 2nd part of 7th gunsthaan aka "satishay apramat"), tab use phir se jo upshaam samykatva hota hai, use Dwitiopsham samyaktva kahte hai.

  • aupshamik charitra
    - aupshamik charitra yeh pragat hota hai 11th gunsthaan main aur yah tabhi pragat hota hai jab jeev upshaam shreni chadta hai. yaha par charitramohniya ki sabhi prakruti ka upshaam hota hai (this may be 21 or 25 in all, depending on whether the jeev who
    is climibing the upsham shreni has kshyaik samyaktva or aupshamik samyaktva respectively)


kshyaik bhav - 9

These are:kevalgyan, kevaldarshan, kshayik daan, kshayik labh, kshayik bhog, kshayik upbhog, kshayik virya, kshayik kshayik charitra, kshyaik samkyaktva


khsyaposhamki bhav - 18

applies to 7 types of gyan - amati, shrut, avadhi, manaparyaya and 3 types of kugyan for mati, shrut, and avadhi.3 types of darhsan - chakshu, achakshu, avadhi5 types of antray - dan, labh, bhog, upbhog, virya2 types of charitra - saraag charitra and sayamasayam charitrakshaypshamik samyaktva


further subtypestotal subtypes = 53


Then we talked about how each bhav is applicable to anadi anant, anadi sant, sadi sant and sadi ananta.

  • Kshayik bhav - sadi anant
  • Audayik bhav - all 4 types (not sure how sadi anant can happen. Someone please clarify)
  • Kshayopshamik bhav - sadi sant, anadai anant, anadi sant
  • Aupshamik bhav - sadi sant
  • Parinamik bhav - anadi anant