Saturday, June 20, 2009

Ch 2 Sutra 8 - 12

Date of Swadhyaya: 13th June, 2009
Attendees:
Summary Prepared by: Avani
Chapter No: 2
Sutra No: 8 - 12
Recorded lecture: http://library.jain.org/1.Pravachan/shrish/TatvarthSutraClass/
Summary:

5 Bhav

Audayik

Karm ke uday se jo bhaav utpaan hota hai usa audayik bhav kahte hai. (Properties because of Impurity) eg: krodha bhav - caused by uday of krodh kashay.

Kshayik
Karm ke kshay se jo bhaav utpaan hota hai usa Kshayik bhav kahte hai. (Pure without Impurity)
eg: kevalgyan

Aupshamik
Karm ke upsham se jo bhaav utpaan hota hai use Aupshamik bhav kahte hai. (Not 100% pure, Shows purity, Dormant Impurity)
eg: aupshamik samyaktav - caused by upsham of darshan mohniya karm.

Kshayopshamik
Karm ke kshyaopsham se jo bhaav utpaan hota hai use Kshayopshamik bhav kahte hai. (Part of purity because of karma) eg: mati gyan - caused by kshayopsham of mati gyanavarniya karma.

Parinamik
jeev ke aise bhaav jo ki karm ki apeksha nahi rakhe hai aur trikalvarti avastha mein swabhav se hi paya jaye, chahe wah avastha shuddh ho ya ashuddh ho, use parinamik bhav kahte hai.
eg: jeev ka janan bhav - because regardless of whether a jeev is in nigod or is a siddha, janan bhav will always be there. Here, we drew a distinction between janan bhav and gyan itself, since gyan may be more or less depending on the corresponding gyanavarniya karma's uday, while janan bhav is something that stays constant across all paryayas. (Properties Independent of Purity/ Impurity)


द्वीभंगी - दो भंग त्रिभंगी - तिन भंग

यह भाव मेसे कोई दो भाव / तिन भाव कहा पाए जाते है.

द्वीभंगी :

औपशमिक + क्षायिक = 11th गुनस्थान
औपशमिक चरित्र + क्षायिक सम्यकदर्शन

औपशमिक + क्षायोपशमिक = 11th गुनस्थान
औपशमिक चरित्र + क्षायोपशमिक ज्ञान

औपशमिक + औदेयिक = 4th गुनस्थान
औपशमिक सम्यक्त्व + औदेयिक (कर्मो का उदय - ज्ञानावर्निय)

औपशमिक + परिणामिक = 4th गुनस्थान
औपशमिक सम्यक्त्व + जिव का स्वाभाव जो हमेसा साथ रहेता है

यह सब one of the examples है...इसके सिवाय भी कई जगह यह भाव पाए जाते है.

लक्षण
- किसी वस्तु का लक्षण वो है जो उस वस्तु को बाकि वस्तु से अलग दिखाए. लक्षण पूरी चिज को समजता नहीं है वो वस्तु की विशेषता है जो दूसरी चीज से अलग है.

किसी चीज का लक्षन दोष रहित होना चाहिए...

यह दोष तिन प्रकार के है..कोई भी लक्षण यह तिन दोष से रहित होना चाहिए

अतिव्याप्ति - यह लक्षण एक से ज्यादा चीज में पाया जाता है
e.g. जो Apple जय सा है वो Orange है ( इस में दोष होगा - Apple जैसा पेर, Orange etc भी है )
अव्याप्ति - यह लक्षण पूरी/ सभी चीज को नहीं बताकर कुछ भाग को ही बताते है.
e.g. जो Apple जैसा पिला colour का है वो Orange है (दोष लगेगा क्यूंकि जो Orange Colour का है वो भी Orange है)
असम्भव पना - यह लक्षण उस चीज में पाया ही नहीं जाता
e.g. Orange Black colour का है

जिव का लक्षण उपयोग है इसमें कोई दोष नहि है क्यूंकि उपयोग सिर्फ जिव में पाया जाता है

उपयोग - गुण का परिणमन उपयोग है. जिव में ज्ञान, दर्शन गुण है, उसका परिणमन ज्ञाता, द्रष्टा पना के परिणमन को उपयोग कहते है

उपयोग कितने प्रकार के है?
१. ज्ञानोपयोग - ५ ज्ञान, कुमति, कुअवधि, कुश्रुत
२. दर्शनोपयोग - चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन, केवल दर्शन

दर्शन और ज्ञान में साकार और अनाकार ऐसे दो प्रकार के भेद है दर्शन निराकार है उसके पश्चात पदार्थ के आकर वगैरेह को जानना ज्ञान होता है

छ्द्मस्थ को दर्शन के पश्चात ज्ञान होता है.. छ्द्मस्थ क्रम से पदार्थ को जानता है, परन्तु केवली भगवान दोनों के एक साथ जानते है

जिव के कितने भेद है?
१. संसारी
२. मुक्त

यह व्यव्हार से भेद किये गए है...निश्चय से सब जिव जिव है

संसार - चक्कर लगाना , जन्म मरण, रात - दिवस. यह सब चक्कर है.

पॉँच प्रकार के परिवर्तन होते है.

A. द्रव्य परिवर्तन:
१. नोकर्म परिवर्तन - जिस प्रकार का शारीर अभी है वैसे यही अवस्था अनेक जन्म मरण के बाद आ जाये, यही परमाणु फिर मिले
२.कर्म परिवर्तन - यही कर्म वर्गना फिरसे अनेक जन्म मरण के बाद वापस मिले
B. क्षेत्र परिवर्तन - लोकाकाश के सब प्रदेशो में अमुक क्रम से उत्पन्न होने और मरने रूप परिभ्रमण C.काल परिवर्तन - क्रमवार उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कल के सब समयों में जन्म लेने और मरने रूप परिभ्रमण
D. भव परिवर्तन - नाराकादी गतियों में बार - बार उत्पन्न होकर जघन्य से उत्क्रुस्थ पर्यंत सब आयु को भोगने रूप परिभ्रमण.(देव गति में ३१ सागर तक की ही आयु भोगनी चाहिए.)
E.भाव परिवर्तन - सब योग स्थानों और कषाय स्थानों के द्वारा क्रम से सभी कर्मो की जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट, स्थिति को भोगने रूप परिभ्रमण

इस परिवर्तन से जो जिव छुट जाते है वो मुक्त जिव है

Q. संसारी जिव कितने प्रकार के होते है?
१. मन सहित जिव - संगी जिव
२. मन रहित जिव - असंगी जिव

मन अच्छे - बुरे का विचार कर सकते है

Q. संसारी जिव के भेद दूसरी अपेक्षा
१.त्रस- दो से पॉँच इन्द्रिय के जिव को त्रस जिव कहते है. त्रसनाम कर्म का उदय है
२. स्थावर - एक इन्द्रिय वाले जिव को स्थावर कहते है . स्थावर नाम कर्म का उदय है

व्यव्हार से जो हलन चलन कर सकते है उसको त्रस, जो स्थिर है उसको स्थावर कहते है.

NOTE:

जिव के लक्षण में दोष घटाना;

  • जो वितरागि ते जिव - अव्याप्ति दोष (रागी जिव इसमें नहीं आयेंगे )
  • जो अमुर्तिक वो जिव - अतिव्याप्ति दोष (अमुर्तिक तो आकाश द्रव्य भी है, तो वो भी जिव में आ जायेंगे)
  • जो रागी वो जिव - अव्याप्ति दोष (वीतरागी जिव इसमें नहीं आयेंगे )
  • जिसमे ज्ञान वो जिव - दोष रहित

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